Monday, July 30, 2012






           1.

 शाही क़ायदों के बीच 


शाही क़ायदों के
लड़ती हैं आज़ादियाँ ख़ुद से ही 
चुपचाप वर्षों तक 
काटती हैं जीवन ...
औपचारिकताओं की भारी मालाओं से 

पीड़ा में कराहती हैं 
नाज़ुक गर्दनें ...
यक़ीन मानिए
इस आभामंडल की विरासत थामे
कोर से ढलकता आँसू
कभी होंठों तक नहीं आता
डूबना होता है उसे 
ठीक उसी तरह 
ज्यों बर्फ़ीली चादरों के नीचे कसमसाता हुआ ठंडा समुन्दर
अपनी हदों में रहता है शांत ...




               2.

         बस्ती अपनी ले  जाते हैं 

सात समुंदर,दरिया,साहिल कश्ती अपनी ले जाते हैं 
घर से उड़ते  हैं जब पंछी बस्ती अपनी ले  जाते हैं ,

दरवाजे पर है खामोशी, चौखट भी सुनसान पड़ी है 
जीवन की तालीम,सबक सब,तख़्ती अपनी ले जाते हैं ,

वह  बचपन की याद गली ,गलियों के सब खेले खाले 
बारिश का पानी, कागज की नाव बहकती ले जाते हैं ,

धूप सुनहरी चादर ओढ़े ,बादल संग खेली अटखेली 
डोर  ,पतंगें,  हवा, तरंगे,  चरखी अपनी ले जाते हैं ,

मिट्टी की अपनी सरहद ,यादों का हर मौसम अपना 
खेल खिलौने,आंगन, गलियां ,मस्ती अपनी ले जाते हैं । 

अपने दर पे बुला क्यों नहीं लेते

हया का परदा हटा क्यों नहीं देते

दीदार भी होता रहे हर वक्त बार-बार

दिल में अपने बिठा क्यों नहीं लेते।

Sunday, July 29, 2012

दोस्तों से छिपाना नहीं अच्छा

हाल-ए-दिल न बताना नहीं अच्छा,

इनायत है उसकी हम तुम मिले

यूँ नजरें चुराना नहीं अच्छा,

कल क्या जाने क्या हो जाए

इस कदर बहाने बनाना नहीं अच्छा,

हर एक पल का राज़दार है खुदा 

यूँ झूठी कस्में खाना नहीं अच्छा ।
दिल टूटने से दुनिया बेसाज नहीं होती

जिन्दगी दो पलों की मोहताज नहीं होती

कारवाँ गुजरता चला जाता है यूँ ही

गुबार के अल्फाजों में आवाज़ नहीं होती।
दिल के टूटने का गम क्यों आखिर

आईने की तो फितरत है टूट जाने की

सिलसिला चलता रहा है ,कहानी चलती रहेगी

तुम्हारे रूठने की, मेरे मनाने की।
गम नहीं
_____
कि चुभ गये

मेरे पैरों में

खुशी है कि रास्ते से

कांटे निकल गये ।
जिस राह से गुजर जाऊँगा 

जिन्दगी में महक लाऊँगा

फूल हूँ खुश रखना मेरी अदा है

टूट गया तो तेरे दर का हो जाऊँगा।
अपने दर पे बुला क्यों नहीं लेते

हया का परदा हटा क्यों नहीं देते

दीदार भी होता रहे हर वक्त बार-बार

दिल में अपने बिठा क्यों नहीं लेते।

Tuesday, July 17, 2012

गम का अंधेरा छाया है दोस्तो

ऐसे में क्या कोई आया है दोस्तो,



हर दिलवाले की उल्फत से पूछो


कौन अपना कौन पराया है दोस्तो,



वो तो उड़ते हैं आसमां पे सदा ही


न जाने किसकी सियासत के दम पे,



हमने खुद को जमीं पर ही रखा है


तिनका नहीं बनाया है दोस्तो



                                   पत्तो की डायरी से----
रुसबाई में जमाने गुजरे

गहराई में फसाने बिखरे,


वो बेशकीमती पल जो किसी की


जिन्दगी सवाँर सकते थे


रुठने और मनाने में गुजरे,


ऐतबार मेरा निशाना था


लफ्जों का कहाँ ठिकाना था,


रेशमी रिश्तों के खुबसुरती के पल


आपको झूठ बताने में गुजरे 


मुझे यकीन जताने में गुजरे।





                               ---- पत्तो की डायरी से
हों मेरे कदमों के निशां इतने गहरे

कि उनसे चलने की आहट सुनाई दे


गर राह में भटके कोई अकेला यूँ ही


तो रोशनी की झलक दिखाई दे


बह जायें गमों के अश्क सारे


ऐसी धूप के सैलाब की अँगड़ाई दे


गर टूट जाये अपनों के दिये जख्मों की खातिर


तो सूनी राहों में मरहम बन रहनुमाई दे।



                                          ---- पत्तो की डायरी से
यूँ तो कई जिन्द़गी के सफर में

मिलते हैं बिछड़ जाते हैं


चाहत है मैं खुद को वो चिराग-ए-रौशन बनाऊँ


कि क़ाफिले याद रखें वो सफर


जिस-जिस सफर से मैं गुजर जाऊँ।







                                     ---- पत्तो की डायरी से
1.            ऐ मेरे दिल तेरी धड़कन में कुछ ऐसी बात हो

               मेरे नाम से ही मुस्कुराने की शुरुआत हो


               इस धड़कन के साथ जो धड़कते हैं दिल


               उसको हर खुशी दे खुदा गर वो उदास हो।













2.            राहों में हर कोई रहनुमा नहीं होता 


               निगाहों में किसी के आसमां नहीं होता

               यूँ तो सब करते हैं खुदा की इबादत

               पर उसके दिल में सबका आशियां नहीं होता







                                                   ---- पत्तो की डायरी से
वैसे तो फिज़ूल हैं कागज के टुकड़े

पर उनकी कीमत उस लेखनी से पूछो


जिनको वो अपना दर्द सुनाती है


यूँ तो शब्दों में भी कुछ नहीं रखा है


पर उदास उस मन से पूछो


जिसकी आँखों में शब्दों की हर कड़ी


नये सपने सजाती है



                        ---- पत्तो की डायरी से

कुछ लम्हे


                      अरसा गुज़र गया 


                           इक लम्हे की तरह


                              काश !


                                 ये सफर कभी खत्म न होता।










                        मेरे आँसू की हर एक बूँद 

                           समुन्दर बन गई


                              भले तुमने नहीं समझा


                                    उसकी गहराई को।



                                                            ---- पत्तो की डायरी से

दर्द का रिश्ता

लहरों ने दिये जख्म
समुन्दर उसे सहलाता रहा

यूँ ही सारी रात चाँद 
मुझे रोशनी से नहलाता रहा

निशां न बचा कोई
सुबह बिस्तर से उठने तलक

धूप के रेशमीं आगोश से
वो मेरा दर्द भी जाता रहा।


               ---- पत्तो की डायरी से

Friday, June 22, 2012

यूँ ही

                  




               1.          बंद पलकों के किनारे भिगोये नहीं


                         न शिकवा न शिकायत कभी रोये नहीं


                      पर अपनों ने जाने क्या समझा


                  दिये शिकायतों के तोहफे इतने


               कि हम अरसों तक सोये नहीं।










               2.               आओ चलो एक नज़्म लिखें


                             तुम्हारी इबादत में


                         कयोंकि ख़ुदा को भी मंज़ूर है


                      कि तुम अच्छे


                  तुम्हारे अल्फ़ाज अच्छे ।


                                         ---- पत्तो की डायरी से

ये सबब















तुम्हारे जाने के बाद भी

तुम्हारा अहसास होता है


सांसों की आवाजाही का


दिल के भीतर आभास होता है


आँखों को पढ़ने का सबब 


शायद नहीं आया है हमें अभी


जब पास हो


तो घबराता है मन 


जब दूर जाते हो 


तो बेकरार होता है।

                   ---- पत्तो की डायरी से

तुम ही


















तुम अहसास हो

मैं स्वांस हूँ

तुम प्रेरणा हो 


मैं गति हूँ


तुम ह्रदय हो


मैं स्पन्दन हूँ


तुम न जाने क्या क्या हो


पर मैं सब कुछ नहीं हूँ


स्वयं को तपाकर सुगन्धित बनाया है मैंने


और अब


तुम्हारे मन की अंत:स्थली में


उपजी उस ताजे पुष्प की महक हूँ


जो सुगन्धित करती है


एक एक क्षण


एक एक बूँद


बारिश से पहले और बाद भी


इस लोक के साथ भी इस लोक के बाद भी

मेरे ख़ुदा














1.             अश्क कीमती हैं

                ग़म के खजाने में छुपाकर रखना


                गर रूठ जाये खुदा तो 


                एक बूँद ही काफी है मनाने के लिए।









2.             मेरे ख़ुदा 

                तेरी इनायत और मेरी तक़दीर का रिश्ता 


                इस कदर है महफूज़ 


                कि तेरा नाम आने से पहले


                मेरे हाथों की लकीरें बदल जातीं हैं।



                                      ---- पत्तो की डायरी से
ऐ ज़िन्दगी संभल के चल

मुझे अपने चाँद से ये सवाल करना है


कि अपने लिए थोड़ी सी जगह नहीं तो न सही


पर कुछ ज़ज्वातों का ख्याल करना है


जो लम्हे रह गये अधूरे मुलाकातों के


उन लम्हों का तुझसे मलाल करना है।

            
                             ---- पत्तो की डायरी से
रास्ते के पत्थर उठाए नहीं

सिर्फ ठुकराए जाते हैं


गर ख़ुदा के बन्दों उनको भी दो तरज़ीह


तो शायद एक नया ताज़महल बन जाए।



                           
                            ---- पत्तो की डायरी से
काश मेरे जीने का सबब

दूनिया में कुछ यूँ होता


जज्बात मेरे अपने होते


अहसान तेरा मुझ पर होता


खाली कर देते अरमान सभी


दिल में अश्कों को छुपाकर रखते


गर तूने शिकायत की होती 


और फरमान तेरा अपना होता।



                      ---- पत्तो की डायरी से 
कर ज़माने को रोशन अपनी लौ से इतना

कि तेरी रहनुमाई में हर किसी को ठहरना होगा 

नहीं आएगी खुद मंज़िल तेरे पास यूँ ही


तुझे अपने ही राह-ए-कदम पर चलना होगा

बुझा देंगीं वरना नफ़रत की आँधियां तुझे


यूँ मशाल सा रातभर जलना होगा ।



      
                                                 ---- पत्तो की डायरी से
                           
राहों में हर कोई रहनुमा नहीं होता 

निगाहों में किसी के आसमां नहीं होता


यूँ तो सब करते हैं खुदा की इबादत


पर उसके दिल में सबका आशियां नहीं होता.

Monday, March 12, 2012

लक्ष्य का मस्तक उठाया


सफलता के हस्थ ने आज
लक्ष्य का मस्तक उठाया
देख तेरा चिर प्रेमी विकल
आज तेरे पास आया-----
मस्तक पर कोटि बल लिए
घायल कितने पद-तल किए
शूल-उपवन साफ करके
अमिट प्रेम-पथ बनाया
               देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
पथ का साथी स्वयं मन है
छोड़ना तो बालपन है
कितने ही साथी थक गये
किसने किसका साथ निभाया
               देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
हाथ थामा जब लगन का
मान सब कुछ मन मगन का
कुछ न कुछ तो दे ही देगा
जिसने इस लौ को लगाया,
                देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
पथिक अकेला ही रह गया
अपनों ने अपना साथ छोड़ा
पर दृढ़ प्रतिज्ञा के लहू को
श्रम की धमनी में बहाया
                देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
आज मिलन की घड़ी है
अश्रु धारा बह रही है
वर्षों से जिसकी थी प्रतीक्षा
आज उसको साथ पाया,
                देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
संदेश यही इतिहास यही
चलने का पल आज अभी
नव-भास्कर की थाम किरन
छोड़ दो जो भी गँवाया,
                 देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
उगते सूर्य की लोग जय करने लगे
सिर झुकाकर भेंट जल करने लगे
वो कतार में आगे खड़े थे
जिन्होने कभी था मुँह घुमाया
                 देख तेरा चिर प्रेमी विकल-----
जान कर मन मुस्कुराया मंद
आज पूरे हुए मन के स्वप्न
पर दुख इस बात पर कि
कितनों ने ये राज जान पाया
देख तेरा चिर प्रेमी विकल----

                       ---- पत्तो की डायरी से

Monday, March 5, 2012

जिन्दगी का नेटवर्क

हर आदमी की शिकायत है
कि कोई उन्हें याद नहीं करता
दो शब्द भी,
दो घड़ी ही
जब बात होती है
तो सिर्फ तारों से मुलाकात होती है,
फोन से शाम को
बस काम से,सिर्फ नाम को
जब टैरिफ पड़ा हो
और फ्री कॉल होती है,
अगर शिकायत है
कि साहब याद नहीं करते हैं
तो सीधा सा जबाब है
जो बड़ा ही लाजबाब है
तुम्हारा फोन नहीं लग रहा था
शायद नेटवर्क विजी चल रहा था,
जब ऐसे ही लम्बे समय तक
मुलाकात न हो
फोन पर बात न हो
तो समझ लेना
कि फोन नहीं लग रहा है
और नेटवर्क विजी चल रहा है,
कितना अच्छा था पुराना ज़माना
जब लोग याद करते
तो मुलाकात करते
प्यार बहुत था आपस में
जबकि वर्षों बाद मिला करते,
अब तो फोन पर
सुबह शाम मुलाकात होती है
फिर भी शिकायत रहती है
कि कोई उन्हें याद नहीं करता,
सच तो है कि हम
उलझे हैं खुद
भागमभाग के नेटवर्क में,
झगड़े झंझट के नेटवर्क में,
टीवी और फोन के नेटवर्क में,
नौकरी और लोन के नेटवर्क में,
फंसे हैं जब तक नेटवर्क में
याद न करेंगे ,न याद आयेंगे
उलझने सुलझाते यूँ ही जीवन बितायेंगे
अच्छा हो ,अगर जीवन से सीखें
और खुद को बचायें
जीवन जिएं खुद भी
आगामी पीढ़ी को भी सिखाएं।

बचपन

वो मेले,                                                                            चिठ्ठियाँ कहीं गुम हो गयीं हैं
चाट  के ठेले,                                                                     नया जमाना,नई दुनिया
मिट्टी के खिलौने,                                                                नये लोग,नई बातें हैं अब
टाट के बिछौने,                                                                   वे पुरानी दुनियाँ की बातें हो गयीं हैं
सज सँवरकर बग्घी पे जाना                                                     चिठ्ठियाँ कहीं गुम हो गयीं हैं-
मित्रों के साथ हँसना हँसाना                                                   शोर मच जाता था                                  
कहीं विस्मृत हो गये हैं                                                            जब डाकिया आता था
लगता है हम सभी सभ्य हो गये हैं।                                            गाँव में घर-घर  चिठ्ठी पढ़कर सुनाता था
हमारे घर की औरतें,                                                             समय से पहले इन्जार करते
मोहल्ले की चाची ,                                                              चिठ्ठी की राह तकते थे लोग
पड़ोस की अम्मा,                                                                 खामोश पत्थर सी चुप हो गयीं हैं
दूर की दादी                                                                        चिठ्ठियाँ कहीं गुम हो गयीं हैं
नहीं जाते हैं मेले में                                                                 अब डाकिया सिर्फ बिजली पानी के बिल लाता है
जीते हैं, तो सिर्फ अकेले में                                                        न गाँव में घर-घर जाता है
बचपन की यादें ताजी हो जाती हैं                                                 न कुछ पढ़कर सुनाता है                                  
जब धूल से सने बच्चों को                                                      दरवाजा खटखटाकर                              
मेले में जाते                                                                          दराज से बिल पँहुचाता है
ठेले पर खाते                                                                        रेत की लकीरों की तरह
देखता हूँ                                                                              समय की लहरों से मिट गयीं हैं
सभ्य होने के साथ ही                                                               चिठ्ठियाँ कहीं गुम हो गयीं हैं।
मैंने वो आनन्द
वो अटखेलियाँ
वो मिट्टी से जुड़े होने का अहसास,
और अड़ोसी-पड़ोसी
जो मेरे अपने थे,
खो दिए हैं
और भविष्य के लिए
कुछ बीज बो दिए हैं।

गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’ - श्री अनिरुद्ध सिन्हा

              गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’                           ( गज़लकार - श्री अनिरुद्ध सिन्हा)            पृष्ठ -104...