Thursday, October 13, 2016



           वो अपने हैं



मेरा आंखों से ढलकना
व्यर्थ है
गर तुम्हारे दिल की गहराई में
कोई आवाज न हो
बदल जाते हैं हर्फ़ किताबों के भी
दिल में शिद्दत से
जज्बातों का तूफान जो हो
बेकार है सारी दुनिया के रिश्ते
जिन की तर्ज पर होती हैं सियासत की बातें
जिससे चलते हैं सारी दुनिया के व्यापार
एक धागा काफी है
विश्वास का ,
पिरोने को प्यार  के अल्फाज जितने हैं
कबूतरों  के पांव
कभी बांधे नहीं समय ने
उड़ जाते हैं  वो परिन्देे हैं
जो लौट आये हैं वो अपने हैं…

Friday, October 7, 2016



         मनुष्यता की भीतरी तह


 








 

शायद कैक्टस के रहस्य
थार के रेगिस्तान में मिल जाएँ……
तब तुम अपने व्यक्तित्व की ऊपरी परत को छूना……
उभर आएगी आँखों में
एक ही तरह के कई प्रतिबिम्ब
फिर छूना भीतरी तह…….
धो देना तब बरसों से
गले में अटकी फाँस को प्रतिभा चौहान
स्वामी विवेकानन्द के विचार 


उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा  में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा  देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो।  प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो,  जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे  मृत्यु को प्राप्त हो जाना।बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार  मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर  अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है,  नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी  होते -किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स.४/३२०)लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। (वि.स.६/८८)श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। -- प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का  सम्हाले! ....बडे - बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य -- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा  के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो -- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है,  इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। (वि.स. ४/३९५)इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है -- बडे आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं- यही सदा से होता आया है -- एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। )

Thursday, October 6, 2016

कविता आज


          * पेड़ खूबसूरत है *


किसी ने कहा
आदमी खूबसूरत है
मैंने कहा
पेड़ खूबसूरत है…
फिर आदमी की कुछ खूबसूरती
क्रोध ने,
कुछ ईर्ष्या ने,
कुछ लोभ ने,
कुछ द्वेष ने छीन ली ….
फिर छीन ली दिल ख्वाहिशों  ने
फिर एक दिन
आदमी ने
पेड़ के वज़ूद को मिटा डाला
खूबसूरती के फेर में
नदियों के रूख को अपने रिमोट से घुमाया
चट्टानों के  दिलों को दहलाकर
बना डाले दोराहे,तिराहे ,चौराहे
खूबसूरत पेड़
देखता रहा
सभी कृत्य …
जिसकी कोख में थी खूबसूरती
वो दुनिया को खूबसूरती बांटता रहा
हमेशा , कल भी ,आज भी ,
इंसानियत की आखिरी सांस तक
उसमें बांटने का जज़्बा था…..
और आदमी में लेने का ….Pratibha Chauhan
                


            आज का दिन 


शताब्दियों ने लिखी है आज
अपने वर्तमान की आख़िरी पंक्ति

आज का दिन व्यर्थ नहीं होगा
चुप नहीं रहगी पेड़ पर चिड़िया
न ख़ामोश रहेंगी
पेड़ों की टहनियाँ

न प्यासी गर्म हवा संगीत को पिएगी
न धरती की छाती ही फटेगी
अन्तहीन शुष्कता में

न मुरझाएँगे हलों के चेहरे
नहीं कुचली जाएँगी बालियाँ बर्फ़ की मोटी बून्दों से

बेहाल खुली चोंचों को
मिलेगी समय से राहत

नहीं करेगी ताण्डव नग्नता
आकाशगंगा की तरह ,

पीली सरसों से पीले होंगे बिटिया के हाथ
अबकी जेठ - घर-भर,
आएगा तिलिस्मी चादर ओढ़े

न अब उड़ेगा, न उड़ा ले जाएगा
चेहरों के रंग
आँखों के सपने,
दिलों की आस,

भर देगा आँखों में चमक
आँखों से होता हुआ आँतों तक जाएगा

बुझाएगा पेट की आग ये बादल
आज के वर्तमान मे......................Pratibha Chauhan 


              हमारे हिस्से की आग

पत्थर सरीखे जज़्बात
एक टोकरी बासे फूल भर हैं,

शब्दों का मुरझा जाना
एक बड़ी घटना है
पर चुप्पियों को तोड़ा जाना
शायद बड़ी घटना नहीं बन पाएगी कभी,

इस रात्रि के प्रहर में
घुटे हुए शब्दों वाले लोगों की तस्वीर
मेरी करवटों-सी बदल जाती है

ख़ामोशी की अपनी रूबाइयाँ हैं
जिसका संगीत नहीं पी सकता कोई

सूरज की पहली किरन को रोकना
तुम्हारे बस की बात नहीं
न आख़िरी पर चलेगा तुम्हारा चाबुक
थाम नहीं सकते तिल-तिल मरते अन्धेरे को

नहीं बना सकते तुम हमारे रंगों से
अपने बसन्ती चित्र ,

नहीं पी सकते
हमारे हिस्से की आग
हमारे हिस्से का धुँआ
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की हँसी

पत्थरों से फूट निकली है घास
नही रोक सकते
उनका उगना, बढ़ना, पनपना
जिस पर प्रकृति की बून्दें पड़ी है

अन्तहीन सौम्यता की जुब़ान
अपनी भाषा चुपके तैयार कर रही है
जो ख़ैफ़नाक आतंक को फटकार सके
कर सके विद्रोहियों से विद्रोह
सीना ताने, सच बोले,
जिसका संविधान की अनुसूचि में दर्ज किया जाना ज़रुरी न हो

तब,
यदि ऐसा होगा

हे भारत।।
वो इस ब्रह्माण्ड की
सबसे शुभ तारीख़ होगी..........Pratibha Chauhan 

 त्याग

प्रेम में सुकून को सजा देना
माना की जायज़ है
पर साथी की नींद से खेलना भी तो एक बेईमानी है
क्या टिमटिमाती रातों को भी
सूरज का इन्तज़ार रहता है
या कर देती है
अपना सब कुछ बलिदान
प्रेम में दिन के तारे को.....
डोलते समुद्र की लम्बी-छोटी थिरकती लहरें
देती है बुलावा पहाड़ो की रानियों को
आगोश में मिटा देती हैं
अपनी हस्ती और अस्मिता भी
क्या प्रेम का दूसरा नाम नहीं यह....Pratibha Chauhan












Tuesday, August 16, 2016

[राष्ट्रीय चरित्र]
यूनान की ख़ूबसूरती,
रोम की विधि,
इस्राइल का मजहब,

हे देवों
भारत का धर्म तो
ईश्वरीय पूँजी का पुँज है
आकाश की गूँज है
सूरज की गठरी है
तुम धरती पर आकर देखो
उन्हें कर्मकाण्ड मिले हैं सौगात में
और मुझे तत्वज्ञान का दर्शन
उन्हें अभिमान है ईश्वर होने का
तो प्राणियों पर दया मेरा मौलिक स्वभाव
उनकी भेद भरी दृष्टि
तो मेरी एकात्म अनुभूति--बेमेल है
प्रदीप्ति अतीत से
छनकर आती सुनहरी धूप की गरमी
दीप्तिपूर्ण प्रिज्म की त्रिविमीय श्रृंखला है
पर
शायद तुम्हें अहसास भी नहीं
चन्द दिनों पूर्व उड़ता हुआ चाँद
नीली झील में गिर गया
जिसे ढूँढा गया
खेल के मैदान से विज्ञान की लैब तक
सुनो
कल रात्रि दूसरे देशों ने
उसे अपनी नीली झील से निकाल लिया
जानते हो ?
त्रासदी पूर्ण नाकामी में
उनकी खामियों की जड़ें
राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में पोषित हो रही है
हे देव
अभी समय है
बिखेर दो धरा पर राष्ट्रीय रंग
गढ़ दो नया चरित्र
ओ धरा
अब जन्म दो
वीर सपूतों को
जो निकाल सकें उतराते हुए चाँद को
दिन रात के अथक प्रयत्नों में
अपनी देह-पाँवों को छलनी कर देने वाले ज़ज़्बों के साथ
जन्म-जन्मान्तर के लिए। ......Pratibha Chauhan

 

गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’ - श्री अनिरुद्ध सिन्हा

              गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’                           ( गज़लकार - श्री अनिरुद्ध सिन्हा)            पृष्ठ -104...