Thursday, October 6, 2016



              हमारे हिस्से की आग

पत्थर सरीखे जज़्बात
एक टोकरी बासे फूल भर हैं,

शब्दों का मुरझा जाना
एक बड़ी घटना है
पर चुप्पियों को तोड़ा जाना
शायद बड़ी घटना नहीं बन पाएगी कभी,

इस रात्रि के प्रहर में
घुटे हुए शब्दों वाले लोगों की तस्वीर
मेरी करवटों-सी बदल जाती है

ख़ामोशी की अपनी रूबाइयाँ हैं
जिसका संगीत नहीं पी सकता कोई

सूरज की पहली किरन को रोकना
तुम्हारे बस की बात नहीं
न आख़िरी पर चलेगा तुम्हारा चाबुक
थाम नहीं सकते तिल-तिल मरते अन्धेरे को

नहीं बना सकते तुम हमारे रंगों से
अपने बसन्ती चित्र ,

नहीं पी सकते
हमारे हिस्से की आग
हमारे हिस्से का धुँआ
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की हँसी

पत्थरों से फूट निकली है घास
नही रोक सकते
उनका उगना, बढ़ना, पनपना
जिस पर प्रकृति की बून्दें पड़ी है

अन्तहीन सौम्यता की जुब़ान
अपनी भाषा चुपके तैयार कर रही है
जो ख़ैफ़नाक आतंक को फटकार सके
कर सके विद्रोहियों से विद्रोह
सीना ताने, सच बोले,
जिसका संविधान की अनुसूचि में दर्ज किया जाना ज़रुरी न हो

तब,
यदि ऐसा होगा

हे भारत।।
वो इस ब्रह्माण्ड की
सबसे शुभ तारीख़ होगी..........Pratibha Chauhan 

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