Friday, February 17, 2012

पर्यवेक्षण गृह का पहला दिन

 पर्यवेक्षण गृह का पहला दिन
 मैंने ज्यो ही रखा पहला कदम
 निगाह एक बच्चे के आँसुओं से टकराकर दिल में उतर गई
 धीरे से मैंने रूँधाई को दबाकर प्रश्न किया
 कब से यहाँ हो बेटा
 नीचे सिर झुकाए,
 नजरें बचाए
 बोला कि एक वर्ष से हूँ
 माँ की बहुत याद आती है,
 माँ हर बार आती है
 रोकर चली जाती है,
 पापा भी आते हैं 
 सिर झुकाकर चले जाते हैं,
 दिन निकलता है
 फिर अंधेरे में खो जाता है
 मैं अपनी बारी का इन्तजार करता हूँ
 फिर जाने क्या हो जाता है 
 मैं फिर रह जाता हूँ,
 फिर माँ आती है,
 फिर रोकर जाती है।
 मैं बापस आता हूँ ,
 सोचने मे रात निकल जाती है 
 कि आखिर कौन सी संस्कृति मूल्यों को निगल रही है
जिन हाथों को ज़रूरत है किताबों की
उनमें हथकड़ी डल रही है।

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