इतना शोर
कि खुद की आवाज़ सुनाई नहीं देती,
रात के अंधेरे में जबकि
पानी की बूँद की टिप-टिप से सोना दूभर होता है,
कितना प्रदूषण फैल रहा है
कि दुनिया में,
दिन के उजाले में,
दिन के उजाले में,
इन्सानियत सुनाई नहीं देती,
बेचैन आँखें ढूँढती इधर-उधर
अपनो की आवाज ,उनकी ख्वाहिश,
उनका रूठना और खिलखिलाना अगले पल में,
प्रौढ़ता से शुरू हुआ जीवन
बच्चो की रूमानियत सुनाई नहीं देती,
कहना हो तो कहो,
अपने लिए ही सही,
अपने लिए ही सही,
हर लफ्ज़ का मतलब है लेकिन
बीते ज़माने जैसी
सही आवाज सुनाई नहीं देती।
आज का हर आदमी आपाधापी मे जी रहा है, आपने अपने कलम से सटीक बात लिखी है।
ReplyDeleteशुभकामनाओं सहित।