Sunday, February 19, 2012

दोषसिद्ध

आज खुलीं आँखें गर्वीलीं
आज खुलीं आँखें गर्वीलीं
काली पट्टी की देवी के हाथों में देखो
समय ने मधु मदिरा पीली
आज खुलीं------
सोच रहा मानस बेचारा
इन रहस्यमयी कर के बिन्दू पर
कहाँ गये वे धन के प्याले
मान प्रतिष्ठा के रखवाले
दिया कटोरा इन हाथों में
फूलों की भी साँसें गीली,
आज खुलीं-----
वे हाथ बँधे प्रतिनिधि के आगे
जो झुके कभी न काँधों से नीचे
कैसा खेल खिलाया प्रभु ने
पराधीनता के जीवन में
झुक गया मान घुटनों के नीचे
पड़ी देह प्रिया की पीली
आज खुलीं----
मन ही मन घुटता दम
मात-पिता का छूटा दामन
मुझ जैसे ही उर के छाले
मानवता के विषधर काले
जो तनकर खड़े थे खड़े कभी
चोटों से रीढ़ पड़ी है नीली
आज खुलीं-----
जो झूठ बोलता था  दर्पण
आज कर रहा मौन समर्पण
मानवता के प्रतिनिधि की वाणी
अलग हुआ दूध और पानी
उस ममता का तृप्त हुआ मन
जो बिन बेटे के ही जी ली
आज खुलीं-------

Saturday, February 18, 2012

माँ
















तुम बिन लोक जगत मर्माहत
सूने अंचल और इन्द्रधनुष 
प्रेम,त्याग,क्षमा,दया की धारा
धैर्य,कुशलता,धर्म परायण
जीवन रहा तुम्हारा,
इठलाती,बलखाती
गुण तेरे ही गाती माँ
न पड़ता कम गुणगान तुम्हारा
तूलिका घिसती जाती माँ,
तुम सरस्वती  ज्ञान स्वरों से नहलाओ
जितने भी घट पीना चाहूँ
उतने आज पिलाओ,
ज्ञान दीप्ति लेने देव भी खड़े हुए
मत झुठलाओ
उजियारा मन कर जाओ।






Friday, February 17, 2012

मधुरतम काव्य














मधुरतम काव्य
साधना कि भूमि पर
बसंती हवा से
हर्श-विशाद की देह पर
लिखा जाता है,
कोमल विचार शैय्या से
ह्रदय की गहराई पर
अभिनन्दन करता
यौवन बरसाता है,
भवन और भवनों की
कतारों पर लिखे लेख
गुफाओं की देह को उकेरते कर्कश तीर
जीवन की लय ताल को
स्याही में भिगाता है,
पर्वतों की चाँदनी,
सागर की शान्ति,
पपीहे की धुन,
और गीतों के कणों को
अधरों पर सजाता है,
गौरैया का नीड़,
नई नवेली का घूँघट,
कैन्वस का आखिरी रंग,
और कल्पना की आखिरी पंक्ति को
नयी दुनिया दिखाता है,
प्रकृति के उजले रंग में
गुलदस्तों सदृश
बंद पलकों के चित्र
सांसों की आवृत्ति बन
रात्रि का दीपक
दिन का सूरज बन जाता है।



पर्यवेक्षण गृह का पहला दिन

 पर्यवेक्षण गृह का पहला दिन
 मैंने ज्यो ही रखा पहला कदम
 निगाह एक बच्चे के आँसुओं से टकराकर दिल में उतर गई
 धीरे से मैंने रूँधाई को दबाकर प्रश्न किया
 कब से यहाँ हो बेटा
 नीचे सिर झुकाए,
 नजरें बचाए
 बोला कि एक वर्ष से हूँ
 माँ की बहुत याद आती है,
 माँ हर बार आती है
 रोकर चली जाती है,
 पापा भी आते हैं 
 सिर झुकाकर चले जाते हैं,
 दिन निकलता है
 फिर अंधेरे में खो जाता है
 मैं अपनी बारी का इन्तजार करता हूँ
 फिर जाने क्या हो जाता है 
 मैं फिर रह जाता हूँ,
 फिर माँ आती है,
 फिर रोकर जाती है।
 मैं बापस आता हूँ ,
 सोचने मे रात निकल जाती है 
 कि आखिर कौन सी संस्कृति मूल्यों को निगल रही है
जिन हाथों को ज़रूरत है किताबों की
उनमें हथकड़ी डल रही है।

Thursday, February 16, 2012

आपाधापी















इतना शोर
कि खुद की आवाज़ सुनाई नहीं देती,
रात के अंधेरे में जबकि
पानी की बूँद की टिप-टिप से सोना दूभर होता है,
कितना प्रदूषण फैल रहा है 
कि दुनिया में,
दिन के उजाले में,
इन्सानियत सुनाई नहीं देती,
बेचैन आँखें ढूँढती इधर-उधर
अपनो की आवाज ,उनकी ख्वाहिश,
उनका रूठना और खिलखिलाना अगले पल में,
प्रौढ़ता से शुरू हुआ जीवन
बच्चो की रूमानियत सुनाई नहीं देती,
कहना हो तो कहो,
अपने लिए ही सही,
हर लफ्ज़ का मतलब है लेकिन
बीते ज़माने जैसी
सही आवाज सुनाई नहीं देती।



   

Wednesday, February 15, 2012

संघर्ष






















स्वयं मिलेगी राह तुझे
जीवन के संघर्षों में,
कुछ फूल-शूल के हार मिलेंगे
कुछ विश्वास मिलेगा वर्षों में,
सुख दुख का आगम शाश्वत नहीं है पृथ्वी पर
जब भेद समय का जान गया
तो शोकाकुल क्यों नियति पर
जब कर में तेरे है करनी का निस्सीम बल
बन न लता वृक्ष बन
कर प्रदान निज को संबल ,
निज जीवन जीते हैं सब ही
कुछ औरों को हो तो कुछ बात बने
बूंद-बूंद सा अमृत सबको
फिर कोई बरसात बने
कुछ करने को मन में भाव सभी उछल पड़े
जब सुप्त से सजग हुई आत्मा
नीड़ से पक्षी निकल उड़े ।



Tuesday, February 14, 2012

स्वामी विवेकानन्द के विचार


  • उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा  में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा  देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो।  प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो,  जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे  मृत्यु को प्राप्त हो जाना।बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार  मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर  अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है,  नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी  होते -किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स.४/३२०)लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। (वि.स.६/८८)श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। -- प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का  सम्हाले! ....बडे - बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य -- जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा  के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो -- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है,  इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। (वि.स. ४/३९५)इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है -- बडे आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं- यही सदा से होता आया है -- एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। )

गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’ - श्री अनिरुद्ध सिन्हा

              गजल संग्रह- “तुम भी नहीं’’                           ( गज़लकार - श्री अनिरुद्ध सिन्हा)            पृष्ठ -104...